गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

मैट्रिक की परीक्षा या अग्नि परीक्षा ?

मित्र कौशल ने बताया की बिहार में मैट्रिक की परीक्षा शुरू हो गयी है और इस वर्ष तकरीबन दस लाख विद्यार्थी परीक्षा दे रहे हैं. चुंकी वे बिहार बोर्ड से पास नहीं कियें हैं इसलिए उन्हें ' मैट्रिक परीक्षा का आँखों देखा अनुभव नहीं है. उन्होंने आग्रह किया की मैं कुछ अपनी स्मृतियों को बाटूँ . खैर सबों का अपना अपना व्यक्तिगत और वैयक्तिक अनुभव होता है और शायद उससे तात्कालिक परिस्थिति का एक आंकड़ा मिले. ऐतिहासिक रूप से बिहार में शिक्षण व्यवस्था का कुछ विश्लेषण हो सके. हैं, स्पष्ट रूप से इस विश्लेषण की जिम्मेदारी मैं मित्र कौशल पर सौपता हूँ. कौशल जी ने एक महत्वपूर्ण बात कही की यह परीक्षा विद्यार्थियों के लिए ' rites de passage ' होता है. खैर, उन्होंने स्मृतियों के ' labyrinth ' में इस 'passage ' को ढूँढने की जिम्मेदारी दी है तो मन घटनाओं से ज्यादा उन अनुभूतियों को याद करता है.
बात सत्तर के दशक की कर रहा हूँ. मैट्रिक की परीक्षा आज की तरह नहीं होती थी. आज, जैसे बच्चे परेशान रहते हैं, परीक्षा से ज्यादा अपने पिता-माता की अपेक्षाओं से, माता पीछे पड़ती हैं तो पिता झुंझलाए-बौखलाए से रहते हैं. जैसे एक दौड़ हो रही हो . हाँ हमारे समय में माहौल बदल जाता था. शिक्षक समुदाय की प्रतिस्था बढ जाती थी और headmaster लोगों का दबदबा ऊँचा हो जाता था, पुलिस महकमे में बंदोबस्त की शुरुआत हो जाती थी. उसी बीच बिचौलिए भी उभर कर आते थे जो परीक्षा में पास करवाने का ठेका लेते थे. सुनता था की पैसा देने पर परीक्षा कोई और दे सकता है (impersonation ) या एक स्पेशल रूम में परीक्षा होगी जहाँ हरेक तरह की छूट मिलेगी on -line dictation के साथ . मैं यह एक कस्बाई अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ. खैर शायद परिस्थिति ज्यादा नहीं बदली. सुना की मेरे जान -पहचान के एक शिक्षक जो बाद में headmaster बन गए थे वे पकडे गए ; उनके घर कॉपियां लिखी जा रही थी तेज लिखने वाले professionals द्वारा हाँ , फर्क यह है की पुलिस का छापा पड़ा जो शायद हमारे समय में नहीं होता था. कुछ वर्षों पहले उत्तरी बिहार के किसी जिले में हमारे एक आईएस मित्र जो जिन्होंने काफी कडाई कर रखी थी उनपर जानलेवे हमले की कोशिश भी हुई थी. उस दौर में एक भीड़ मानसिकता थी, शिक्षा पर टूटते सामंतवादी और उभरते पूंजीवादी विचारों का अपना-अपना प्रभाव था. गुंडागर्दी तो एक सार्वभौमिक सत्य था ही.
मेरे अपने दो अनुभव हैं और मैं इसे मैं बिना INTELECUALISE (शायद मैं करने में असफल ही रहूँ) करते हुए पेश कर रहा हूँ.
पहला अनुभव मेरे बड़े भाई के परीक्षा का. उसकी परीक्षा थी औरंगाबाद में. यह था हमारा जिला. भाई मेरा तेज था और उसके कई नखरे थे जैसे काफी (कहवा) पीना ताकि वह देर रात तक जग कर पढ़ सके. मैं उससे तो साल छोटा हूँ मगर मैं उस समय आठवें क्लास में था. एक कमरा किराये पर लिया गया आज के पेईंग गेस्ट की तरह. एक पारिवारिक मित्र जो परिवार के सदस्य की तरह थे (बाद में वह शिक्क्षक बन गए) उन्होंने सारी व्यवस्था की. मेरे नाना जी गुजर गए थे और मेरी नानी की जिम्मेदारी थी मेरे भाई की ठीक ठाक परीक्षा दिलवाने की . वही सज्जन मेरे भाई को औरंगाबाद ले गए और मैं गया साथ देने और कुछ मदद करने जैसे पानी पिलाना, कछुआ छाप जलाना, किताबें - कॉपियां ढोना आदि - आदि .मुझे अभी भी याद है की मैं चुरा-चुराकर MILKMAID चाटता था. वे हमें वहां छोड़ कर आश्वश्त होकर लौट गए यह कहकर की हरेक तीन-चार रोज पर वह आते रहेंगे. रोज मैं भाई के साथ रिक्से से स्कूल तक जाता , ब्रेक के वक़्त नाश्ता देता - पानी पिलाता ,और उसदिन की परीक्षा के बाद उसके साथ डेरा आता. सारा दिन उस गर्म दुपहरी में उस स्कूल के बाहर गुजारता: भीड़ देखते हुए, तथाकथित 'गार्जियन' पर्चे बनाते और किसी खिड़की तक पहुँचाने की कोशिश करते हुए, पुलिस लोगों को एक काल्पनिक दायरे के बाहर लाठी से खदेतते हुए. उसी भीड़ में मेरे मोहल्ले का एक लड़का मिल गया जो औरंगाबाद के किसी कॉलेज में इंटर की पदाई कर रहा था. वह अपने छोटे भाई के लिए वहां आ-जा रहा था. एक दिन उसने मुझसे कहा की चल थोडा शहर देख कर आते हैं. वह स्कूल शहर (उस समय हमारे लिए औरंगाबाद शहर ही था , उसके अलावा मैंने उस उम्र में सिर्फ गया और रांची देखा-घुमा था) से बाहर था और मैंने औरंगाबाद शहर ज्यादा देखा नहीं था. घुमते-घुमते हमने एक होटल में नाश्ता किया और फिर घूमने लगे. घुमते-घुमते वह एक गली में गया जहाँ घर की जगह छोटे छोटे कमरे थे और रंग- बिरंगे , कुछ चमकदार तो कुछ भद्दे-बेरंग पैबंद लगे परदे लटक रहे थे. दरवाजे पर औरते खडी थीं. उनके इशारे, हाव-भाव से मुझे समझते देर न लगी की यह 'रंडीखाना' है. मुझे बड़ा अटपटा लगा. वह लड़का एक कमरे की तरफ बढ़ा. मेरे पास कोई चारा नहीं था सिवाय उसके पीछे=पीछे चलने के अलावा. उसने आगे जाकर कुछ बातें की , उस औरत ने मुझे देखा और कहा,"तू भी आ जा" . मैं झेंप गया. उस लड़के ने मुझसे कहा तुम बाहर थोडा इंतजार करो मैं अभी आता हूँ. वह इंतजार, वह बेबसी और शर्म्गिन्दगी (उम्र के कारण) मैं कैसे भूल सकता हूँ. रास्ता जानता न था की लौट जाऊं. लग रहा था की मैं भटका हुआ हूँ और लोग-बाग एक अजीब नजर से देख रहे हों जैसे मैं कोई उपहास का पात्र हूँ. मगही की एक बोली है " हे धरती मैया , तू फट जा की हम समां जाईं." ऐसा ही कुछ लग रहा था मुझे. खैर पांच-दस मिनट में फारिग होकर वह बाहर निकला और कहा की पांच रूपये में बात बन गयी और मिजाज भी बन गया. तो मित्र यह था मेरा एक अनुभव जो मैट्रिक परीक्षा से जुडी है. हाँ आज से पहले मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई, अपने भाई को भी नहीं जो मेरे दोस्त, मेरे हमदम की तरह है. यह बात मित्र कौशल ने उगलवा ली, इस ब्लॉग के बहाने.
दूसरा अनुभव मेरी अपनी परीक्षा की. मेरा सेंटर पड़ा औरंगाबाद से और आगे : मदनपुर. यह एक छोटी सी जगह थी: शायद ब्लाक के स्तर की. तब तक मेरी नानी को मेरी परीक्षा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. भाई उनका दुलारा नाती था. हाँ अपने सामर्थ्य के मुताबिक उन्होंने पैसे देने का आश्वाशन जरूर दिया. अपनी परीक्षा की व्यवस्था मेरी ही जिम्मेदारी थी. मेरा एक सहपाठी दोस्त था : कलाम. मुस्लिम और जाति का रंगरेज. उसका घर मेरे घर के पास ही था. उसके परिवार में सभी लोग , औरतें -मर्द और बच्चे 'रंगरेजी' के काम में लगे रहते . बच्चे और औरतें कपडे रंगते-सुखाते, कलफ लगाते तो बड़े उन कपड़ों पर अलग-अलग चमकीले रंगों से लकड़ी के 'ठेपों' से जिनपर तरह-तरह के डिजाईन बने रहते थे, उसकी छपाई किया करते थे. यह एक तरह का ' ब्लाक -प्रिंटिंग' था और कलाम के बड़े , संयुक्त परिवार का सारा आर्थिक आधार था: रंगरेजी. गरीब औरतें जो थोडा पैसे से सादी सूती कपडे पर रंगरेजी करवाते थे : साड़ी या . दुपट्टे बनवाते , सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ. खासकर सारे लोग नवाब साहेब और घोड़ा साईं (जिसकी चर्चा मैंने पुराने ब्लॉग पर की थी ) के मजारों पर चढ़ने वाले चादर. यही था व्यवसाय उसके परिवार का. . यह एक बड़ा परिवार था . कलाम गरीब था मगर पढने में तेज था खासकर गणित में. वह अपने परिवार में पहला लड़का था जो मैट्रिक की परीक्षा दे रहा था. उससे परिवार को काफी उम्मीदें थीं. मैंने निर्णय लिया की कलाम के साथ ही मदनपुर में रहूँगा और परीक्षा दूंगा. मेरे परिवार को भी कोई आपत्ती नहीं हुई. इस तरह कलाम के दादा जी बन गए अभिवावक और बावर्ची. नानी ने कुछ नमकीन -कुछ मीठे बना दिए जो दस-पंद्रह दिन चल सके नाश्ते के बतौर. केरोसीन तेल के स्टोव , बर्तन, राशन अदि की व्वस्था हुई और मैं, कलाम और उसके दादा चल पड़े मदनपुर को . हम बस से मदनपुर पहुंचे और डेरा लिया किसी मुस्लिम सज्जन के घर में. शौचालय और नहाने की व्यवस्था नहीं थी. कुछ दूर पर किसी दफ्तर के आगे एक चापा कल (handpipe ) था वहां से पानी लाना पड़ता था. अहले सुबह हम वहीँ नहाया करते थे. झाड़ियों के पीछे किसी तरह शौच करना मेरे लिए एक नया तजुर्बा था. हमें पढने देने के लिए कलाम के दादा जी खुद पानी भर लाते. उनके हाथों बने पराठें और आलू की सब्जी अभी भी याद है मुझे. पहली बार मैंने चौकोना पराठा देखा और खाया था. शाम को जब थोड़ी ठंडी हवा चलती और आसमान लालियाता तो हम पास के एक वीरान से जगह पर जाते और पत्थरों पर बैठते. परीक्षा के दौरान पुलिस का बंदोबस्त तो था ही फिर भी पुर्जे अन्दर-बाहर आ-जा रहे थे. इसे हम कहते थे ' चोरी चलना' . खैर हमारे न तो तो कोई हमदर्द थे न दिलावर दोस्त-मुहीम जो मदद करते . मदद की जरूरत थी या नहीं; यह बात मैं गोपनीय ही रखता हूँ. हमारे साथ थे तो सिर्फ कलाम के दादा : अनपढ़ पर बड़े जिगर वाले जिसमे सिर्फ दुवाएं भरीं थी : कलाम और मेरे लिए.
बरसों पहले कलाम के दादाजी अल्लाह को प्यारे हो गए, और कलाम एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक बन गया. बहुत तंगी से गुजारा करता है अपना और अपने परिवार का जीवन. बेटा होशियार और पढ़ा-लिखा मगर बेरोजगार. रंगरेजी का काम भी कालांतर में ' बाजारीकरण' की ऐतिहासिक प्ताक्रिया में लुप्त हो गया.
सोचता हूँ कितने अच्छे और प्यारे थे वे दिन, कितना अपनापन था. संकीर्ण सांप्रदायिक या सामाजिक - आर्थिक दुर्भावनाओं से ऊपर थी हमारी भावनाएं :
"
न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी,
ये दौलत भी ले लो , ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी
"