रविवार, 26 अप्रैल 2009

फस्सिल में ताड़ी की बहार


( मित्र कौशल ने मगह क्षेत्र में ताड़ी पीने की सामाजिक परंपरा पर अपना आलेख लिखकर मगह के सामाजिक - सांस्कृतिक जीवन में ताड़ी, पासी जाति, पासीखाना और ताड़ी की सामाजिक मान्यता पर आपसी विचारों के आदान - प्रदान के लिए एक नया मंच खोला है. मैं जानता हूँ की कौशल जी ने ताड़ी चखने से ज्यादा कुछ नहीं किया है परन्तु उन्होंने ताड़ी को गैर-मगही नजरिये से ( जो ताड़ी को निकृष्ट मानता है ) बाहर निकाल कर मगह की लोक संस्कृति में ताड़ी के महत्व को स्थापित किया है . चलिए उनसे उत्प्रेरित होकर मैं ताड़ी पर यह आलेख लिख रहा हूँ )

परदेस प्रवास में कभी-कभी मादरे-वतन की यादें आती रहती हैं. त्यौहार हो, बदलते मौसमों की खुमार हो या रिश्तों के हाल-चाल .... अपनी जमीन की खुसबू और उसकी खींच से हम मुक्त नहीं हो पाते. अब तो दूरसंचार का जमाना है . हरेक साल गर्मियों में हमारे मित्र गण दाऊदनगर से फ़ोन करते हैं की " ...फस्सिल (फसल का मगही अपभ्रंश ) ) आ गईल हऊ अऊर बगईचा में ताड़ी पिय थी और तोरा याद आवा हऊ " . इस साल भी फ़ोन आया और फस्सिल की यादें तरोताजा कर गयीं. फस्सिल यानि गर्मियों के महीने जो बैसाख से शुरू हो जाती है और आसाढ़ के प्रारंभ तक चलती है. इन महीनों में ताड़ी का रिसाव तापमान के साथ -साथ बढ़ता जाता है. आसाढ़ के मेघ और बारिश की फुहारों से ताड़ी पनिया जाता है और इसकी मिठास बढ़ जाती है. अब तो ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव भी फस्सिल पर पड़ रहा है सुनते है गर्मी के बढ़ जाने के कारण फागुन- चैत से ही फस्सिल शुरू हो जाती है.
मगध में ताड़ी के पेड़ काफी संख्या में पाए जाते हैं. पूरे औरंगाबाद जिले में हसपुरा के बाद दाऊदनगर का क्षेत्र ताड़ बहुल है. इसीलिये यहाँ की जनसँख्या में पासी जाति के लोग काफी हैं. उनका आर्थिक श्रोत ताड़ी और सिंघाडा (एक पानी में उगनेवाला फल ) होता है. फस्सिल के महीनों में उनका घर या ताड़ के बगीचों में उनकी अस्थायी झोपडी पासीखाना या ताडीखाना में तब्दील हो जाता है. लोग दस बजे सुबह तक वहां पहुँच जाते हैं. tabtak सुबह की ताड़ी आ चुकी होती है और उसके रसपान से शुरुआत होती है ताड़ी पीने की. दुपहर तक दूसरा खेप आ जाता है जो काफी नशीला और ज्यादा खट्टा होता है . चखने में सत्तू , चना , घूग्नी, मूंगफली चलती है. जो लोग रेगुलर ग्राहक होते हैं उनके लिए भोजन का भी प्रबंध हो जाता है. शाम ढलते - ढलते एक और खेप आता है. ताड़ी पीने का यह दौर रात तक चलता है. अर्ध-रात्री की ताड़ी सबसे जायकेदार होती है . दूसरी बात, ताड़ एक diocious plant है यानी नर और मादा पेड़ अलग अलग होते हैं. इसीलिये ताड़ दो तरह के होते हैं : बलताङ (नर) और फलताड़ (मादा) . फल्ताड़ की ताड़ी उतनी स्वादिष्ट नहीं होती. सर्दियों के दिनों की ताड़ी या अहले सुबह की ताड़ी अगर पी जाये तो स्वास्थ के लिए बहुत अच्छा होता है क्योंकि ताड़ी में sucrose होती है और fermentation के कारण वह नशीला हो जाता है. मुझे याद है मेरे नाना जो डॉक्टर थे , यकृत के मरीजों को बाकायदा सुबह की ताड़ी पीने की सलाह दिया करते थे.
हाँ मित्रों , फस्सिल में बगीचे पिकनिक स्पॉट में बदल जाते हैं. लोगों का हुजूम. क्या अमीर क्या गरीब. क्या उच्च वर्ण और क्या नीची जाति ले लोग. यह मयकदा सबों को मस्ती के एक धरातल पर ले आता है. गप-शप, विचार-विमर्श, देस-दुनिया की खबरें, गीत-संगीत. हाँ ताड़ी पीने या रखने का पैमाना भी होता है : चुक्का , पंसेरा, लबनी और सबसे बड़ा घडा. अगर जमात बड़ी हो और पीने का दौर लम्बा हो तो एक-दो लबनी काफी होती है. ताड़ी पीने के लिए पासी ताड़ के पत्तों से दोनी बनाकर देता है जिसमे ताड़ी पीने का अलग ही अंदाज होता है.
मैंने सबसे पहले ताड़ी अपने पडोसी " गुप्तवा " जो जाति का भङभूँज़ा था , उसके घर में पिया . फस्सिल में घर में ताड़ी लाना और पीना आम बात थी और उस तबके के लोगों में स्त्रियाँ भी ताड़ी पीती हैं. जो लोग वृद्ध थे और उनका घर के बाहर आना - जाना मुश्किल था या वे लोग जो बगीचे या पासीखाने में जाना अपनी शान के खिलाफ मानते उनके लिए पासी घर में ताड़ी दे जाता मगर ताड़ी पीने की परंपरा सर्वव्यापी थी.
जब मैं बड़ा हुआ और अपनी दोस्तों की मंडळी बनी तो एक मित्र जो ताड़ के बगीचे के मालिक थे और डोमन चौधरी को ठीका देते थे उसीके घर में जो बगीचे के नजदीक थी वहीं हम रोज़ ताड़ी पीते थे . खाना खाने दुपहर में घर आते , खाना खाकर थोडा सोते और शाम से देर रात तक ताड़ी का दौर चलता. हम गाना गेट, कवितायेँ सुनते- सुनाते, नाटक खेलने की योजना बनाते, गंभीर चर्चाएँ (जिसमे कार्ल मार्क्स के विचारों पर भी बातें होतीं ) करते थे.
डोमन चौधरी का ताडीखाना को हम
लबदना युनीवर्सिटी कहते थे जिसके वाइस चाँसलर खुद दोमन चौधरी हुआ करते थे और हम उनके छात्र थे. डोमन चौधरी हमारे लिए सबसे अच्छे ताड़ की ताड़ी और विशिस्ट चखने का इंतजाम करते. हरेक बगीचे और अलग अलग पेडों की ताड़ी की अलग अलग तासीर और स्वाद हुआ करता था और आमतर लोग किसी खास बगीचे या किसी खास पेड़ की ताड़ी ही पीना पसंद करते थे.
ताड़ मगह का बियर है जो फस्सिल में सरेआम बहता है आप उन्जरी लगायें और पियें पेट भरकर , यह तरावट भी देगा और शुरूर भी जो इस धरती पर कहीं और नहीं !

ताडी पियो तरन भयो , सुखी भयो संसार

(यह आलेख मित्र कौशल किशोर ने अपने ब्लॉग patnagandhimaidan पर पोस्ट किया । चूँकी विषय ताडी है और इसका मगध क्षेत्र से गहरा ताल्लुक है इसीलिये इसे यहाँ भी पोस्ट कर रहा हूँ )

यूँ तो पटना बिहार राज्य की राजधानी है पर यह अपने मूल चरित्र में - खास कर शहर का पुराना हिस्सा - मगही शहर है.तो जाहिर है की शहर मगही लोक संस्कार और रंग -ढंग में ओत -प्रोत होगा .
मगही लोक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है , चैत , बैसाख और जेठ के महीनों में बाग , बगीचों , खलिहान और ताड़ के पेडों के इर्द - गिर्द पियाकों का मजमा . ताडी के इस मजमें को आप इस मौसम में मगह के गाँव , कस्बों से लेकर पटना शहर के भीतरी न सही पर बाहरी इलाकों तक में देख सकते है.एक बात और , मगह क्षेत्र में ताडी और इसके चाहने वालों को उस नीची निगाह से नहीं देखा जाता है जैसा की गंगा पार में नजरिया है.
करीब करीब पूरा मगध क्षेत्र ताड़ के पेडों से भरा हुआ है. ग्रामीण इलाकों में बैसाख के मध्य तक ग्रामीण जन खेती बारी के काम से निवृत हो जाते हैं . लगन , माने के शादी व्याह की शुरुयात हो जाती है. लोग बाग़ अपने बचे खुचे सामजिक काम करते है. यह मौसम लोगों की जुबान में कहें तो बैठा - बैठी का समय है. खेती के काम से फुरसत .मानसून के आने तक खेती का अमूमन कोई काम नहीं.ताड़ के पेड़ घौद से लड़ने लगते हैं.बलुरियाह और घौदहा दोनों तरह के ताड़ के पेडों पर लबनी टंग जाती है और पासी सबेरे शाम ताड़ से ताडी उतारने का क्रम शुरू कर देता है.मौसम जैसे जैसे तपता है ताडी की मात्रा और मादकता बढती जाती है.अगर आप पटना से गया बरास्ता मसौढी , जहानाबाद या फिर फतुहा हिलसा इस्लामपुर , नवादा बिहारशरीफ किधर को भी निकल जाएँ , ताडी के मतवालों की भीड़ ताड़ पेड़ के इर्द गिर्द बाग़ बगीचों में बैठी मिल जायेगी.उस समूह में आप बिअत्हें तो दीं दुनिया जहान की बातें ये ताडी प्रेमी करते मिलेंगें. बात चीत के दायरे में सब कुछ. इस साल तो चुनाव का मौसम है . शासन सुशासन से लेकर नीतीश , लालू , पासवान , सोनिया , अडवाणीजी सब की चर्चा होती होगी. घर - परिवार ,शादी - विवाह ,आस - पड़ोस , दोस्ती - दुश्मनी , और हाट - बाजार सब पर विचार मंथन होता है.
किस्सागोई अगर सीखना हो तो आप इस तरह की किसी मंडली में बैठें .बहुजन - हिताय और बहुजन -सुखाय विमर्श को ,ताडी के मादक रस में , होते अनुभव करना चाहते हों तो मगह क्षेत्र में बैसाख के इस लोक उत्सव में शामिल हों .
शर्त के साथ मैं यह कह सकता हूँ की लोक मंगल की भवन में आपका जरा भी विश्वास है तो एक बार के बाद आप पुनः पुनः इस लोक रंग में भींगना चाहेंगें ।

आलेख: कौशल किशोर