शनिवार, 31 जनवरी 2009
daudnagar
daudnagar औरंगाबाद जिले का एक क़स्बा है। इसका नाम daud खान से आया जो मुग़ल समय अथवा सूरी राज में सेना का अधिकारी था। कस्बे के पुराने इलाके में एक किला है । इस कसबे में एक मोहल्ला है जिसका नाम है पटना का फाटक । इसका मतलब है कि इसका इलाका सुरक्षा के वास्ते घिरा हुआ था । मैंने ब्रिटिश gazette में पढ़ा कि यह जगह दरी, पीतल के बर्तन और खेती के लिए मशहूर था। यहाँ मुनिसिपलिटी थी जो सौ सालों से भी पुरानी थी । कुछ सालों पहले जन गणना के मुताबिक इसका दर्जा मुनिसिपलिटी के लायक नहीं थी और यहाँ पंचायत समिति बन गई । ब्रिटिश शाषण के समय यहाँ नील (इंडिगो) और अफीम (ओपियम) के गोदाम थे । अभी भी यहाँ एक मोहल्ला है नील कोठी और अफीम कोठी ।। यहाँ का बाजार विकसित था । सोन नदी और गंगा नदी के बीच नहर बनाया गया था ब्रिटिश समय में जो यहाँ से गुजरता है । नहर से खेती विकसित हुई और कई जगह बिजली निकालने के लिए मिल लगे। इस बिजली से मेकनिकल काम किए जाते थे जैसे तिलहन से तेल निकालना अथवा गेहूं कि पिसाई । यहाँ के जनसँख्या में कुछ जातियों का ज्यादा संख्या में होना उनके पारंपरिक बाहुल्य को दर्शाता है जैसे कसेरा (कांसा या पीतल के बर्तन बनाने वाली जाती या पटवा जो मिटटी काटकर नहर बनाने थे) । ब्रिटिश समय में यहाँ शराब का गोदाम भी था। जब आजादी कि लड़ाई हुई तो लोगों नें गोदाम पर हमला किया । मेरी नानी बोलती थी कि कुछ लोगों ने १००% कांसन्त्रतेद शराब पी ली और मर गए। बाजार में विदेशी सामानों कि होली जलाई गयी । यह है कुछ शब्दों में daudnagar का परिचय ।
घोड़ा साईं
daudnagar में एक मजार है जहाँ हिंदू और मुसलमान समान श्रधा से जाते हैं । यहाँ दो मजार हैं । एक नवाब साहेब का है और दूसरा उनके घोड़े का । नवाब साहेब दुश्मनों का मुकाबला करते हुए घायल हो गए थे। उनका वफादार घोड़ा उनके शरीर को वापस शहर ले आया । घोड़ा भी घायल हो गया था। दोनों शहीद हो गए और दोनों का मजार दो जगहों पर स्थापित हैं । घोड़ा साईं का मजार काफी मशहूर है और हरेक साल यहाँ उर्स होता है । लोगों का मानना है की वे सभी मुरादें पूरी करते हैं। कुछ साल पहले मै जब वहां गया था तो एक हिंदू ने मुझसे पूजा कराई। घोड़ा साईं का मजार धर्म से ऊपर धार्मिक सद्भावना का प्रतीक है और एक यह प्रतीक है वफादारी का वह भी एक जानवर का जो लोगों की नजरों में भगवन है ।
बड़े बाबु
यह सच्ची कहानी मैंने अपने दोस्तों को सुनाया करता था । बड़े बाबु एक बेरोजगार व्यक्ति थे । कायस्थ परिवार के थे इसलिए पढने लिखने का शौक था और जमीन थी तो शायद उन्होंने नौकरी की जरुरत नहीं समझी । चूँकि उनके पास समय ही समय था तो एक रूटीन में वो अपना समय बिताते थे। अखबार पद्गने का उनको शौक या नशा था । अखबार वो खरीदते नहीं थे । तक़रीबन दस बजे नाश्ता करके घर से निकलते और धीरे धीरे अपन वक्त काटते । कई जगह पड़ाव लगाकर आख़िर में नई शहर के बाजार में कामता के पान दुकान पर आते और देश दुनिया के ऊपर ( तब तक उन्ही की तरह कुछ रेगुलर लोग जो उसके दूकान पर उस समय बैठकी लगाते ) अपना विचार प्रकट कर वापस घर लौट जाते थे। उस समय बिहार में सिर्फ़ दो समाचार पत्र प्रकाशित होते थे , आर्यावर्त और प्रदीप । बड़े बाबु दोनों अख़बारों को काफ़ी डिटेल में पढ़ते थे शायद निविदा (टेंडर) पेज भी । मजे की बात तो यह थी की अपने कई पडाओं पर वो एक ही अखबार बार बार पढ़ते थे। शायद समय काटने के लिए यह जरुरी था । pahla पड़ाव था पंडित जी का घर । पंडित जी के यहाँ एक अखबार आता था और वह उनके दालान में उपलब्ध रहता था। शायद घर का कोई व्यक्ति पढ़े न पढ़े अखबार दालान की शोभा थी । बड़े बाबु की तरह कई लोग जो उनके यहाँ आते अखबार पढ़ते थे । पंडित जी काफ़ी बूढे हो चुके थे और आंखों की रौशनी जा चुकी थी। एक दिन की बात है बड़े बाबु रोज की तरह पंडित जी के यहाँ पहुँच गए और अखबार पढने लगे । पंडित जी झपकी ले रहे थे । थोडी कुछ देर बाद पंडित जी ने पूछा," का बड़ा बाबु , का समाचार है ? " बड़े बाबु ने कहा, " जी पंडित जी, अभी पढ़ी थी ।" थोडी देर बाद पंडित जी ने फिर पूछा, " का बड़ा बाबु कुछ समाचार तो बोला ।" बड़े बाबु ने फिर कहा, " जी पंडित जी अभी पढ़ी थी ।" थोड़ा समय और गुजरा और पंडित जी ने फिर पूछा " अरे बड़ा बाबु कुछ समाचार तो बतावा ।" बड़े बाबु ने फिर से कहा, " जी पंडित जी अबी पढ़ी थी कुछ होती तो बतैबी ।" पंडित जी के सब्र का काबू जैसे टूट गया । गुस्से से वे बड़े बाबु पर टूट पड़े ," एक घटा से पढ़ी था जे है से की सारा अखबार सादा है का ? "
बड़े बाबु चुपके से निकल लिए और अपने अगले पड़ाव पर वही अख़बार फिर से पढ़ना शुरू किया जैसे कीच हुआ न हो और जैसे उन्होंने उस दिन का अखबार पढ़ा ही न हो । उनके दिनचर्या में कोई फर्क न आया , हाँ दूसरे दिन से वो पंडित जी के दालान में नहीं दिखे।
बड़े बाबु चुपके से निकल लिए और अपने अगले पड़ाव पर वही अख़बार फिर से पढ़ना शुरू किया जैसे कीच हुआ न हो और जैसे उन्होंने उस दिन का अखबार पढ़ा ही न हो । उनके दिनचर्या में कोई फर्क न आया , हाँ दूसरे दिन से वो पंडित जी के दालान में नहीं दिखे।
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